Thursday, August 14, 2014

FINAL LESSON OF KHWAJA MUINUDDIN CHISHTI R.A,



The final discourse of Khwaja Muinuddin Chishti RA to his students, one month before his death:

Love all and hate none.
Mere talk of peace will avail you naught.
Mere talk of God and religion will not take you far.
Bring out all the latent powers of your being
and reveal the full magnificence of your immortal self.

Be overflowing with peace and joy,
and scatter them wherever you are
and wherever you go.

Be a blazing fire of truth,
be a beauteous blossom of love
and be a soothing balm of peace.

With your spiritual light,
dispel the darkness of ignorance;
dissolve the clouds of discord and war
and spread goodwill, peace, and harmony among the people.

Never seek any help, charity, or favors
from anybody except God.
Never go the court of kings,
but never refuse to bless and help the needy and the poor,
the widow, and the orphan, if they come to your door.

This is your mission, to serve the people.....

Carry it out dutifully and courageously, so that I, as your Pir-o-Murshid,
may not be ashamed of any shortcomings on your part
before the Almighty God and our holy predecessors
in the Silsila on the Day of Judgment.
 

Wednesday, March 6, 2013

मौलाना जलालुद्दीन रूमी की कहानी 'हवा और मच्छर का मुक़द्दमा'

एक बार एक मच्छर ने न्यायी राजा सुलेमान के दरबार में आकर प्रार्थना की, ‘‘हवा ने हमपर ऐसे-ऐसे जुल्म किये हैं कि हम गरीब बाग की सैर भी नहीं कर सकते। जब फूलों के पास जाते हैं तो हवा आकर हमें उड़ा ले जाती है।, जिससे हमारे सुख-साम्राज्य पर हवा के अन्याय की बिजली गिर पड़ती है और हम गरीब आनन्द से वंचित कर दिये जाते हैं। हे पशु-पक्षियों तथा दीनों के दु:ख हरनेवाले, दोनों लोकों में तेरे न्याय-शासन की धूम है। हम तेरे पास इसलिए आये हैं कि तू हमारा इन्साफ करें।’’

पैग़म्बर सुलेमान ने मच्छर की जब यह प्रार्थना सुनी तो कहने लगे, ‘‘ऐ इंसाफ चाहनेवाले मच्छर! तुझको पता नहीं कि मेरे शासनकाल में अन्याय का कहीं भी नामोनिशान नहीं है। मेरे राज्य में जालिम का काम ही क्या! तुझको मालूम नहीं कि जिसदिन मैं पैदा हुआ था, अन्याय की जड़ उसी दिन खोद दी गयी थी। प्रकाश के सामने अंधेरा कब ठहर सकता है?’’

मच्छर ने कहा, ‘‘बेशक, आपका कथन सत्य है, पर हमारे ऊपर कृपा-दृष्टि रखना भी तो श्रीमान ही का काम है। दया कीजिए और दुष्ट वायु के अत्याचारों से हमारी जाति को बचाइए।’’

सुलेमान ने कहा, ‘‘बहुत बच्छा, हम तुम्हारा इंसाफ करते हैं, मगर दूसरे पक्ष का होना भी जरूरी है! जबतक प्रतिवादी उपस्थित न हो और दोनों ओर के बयान न लिखे जाये तबतक तहकीकात नहीं हो सकती, इसलिए हवा को बुलाना जरूरी है।’’

सुलमान के दरबार से जब वायु के नाम हुक्म पहुंचा तो वह बड़े वेग से दौड़ता हुआ हाजिर हो गया। वायु के आते ही मच्छर ठहर नहीं सके। उन्हें भागते ही बना। जब मच्छर भाग रहे थे उस समय उनसे सुलेमान ने कहा, ‘‘यदि तुम न्याय चाहते हो तो भाग क्यों रहे हो? क्या इसी बलबूते पर न्याय की पुकार कर रहे हो?’’

मच्छर बोला, ‘‘महाराज, हवा से हमारा जीवन ही नहीं रहता। जब वह आता है तो हमें भागना पड़ता हैं यदि इस तरह न भागें तो जान नहीं बच सकती।’’

[यही दशा मनुष्य की है। जब मनुष्य आता है अर्थात जबतक उसमें अहंभाव विद्यमान रहता है, उसे ईश्वर नहीं मिलता और जब ईश्वर मिलता है तो मनुष्य की गन्ध नहीं रहती अर्थात उसका अहंभव बिलकुल मिट जाता है।]

Wednesday, September 5, 2012

सूफ़ियों का कलाम आज भी दिल को सुकून देता है Hazrat Nizamuddin Auliya

जीवन को जानने का स्तर जीवन जीने के स्तर को बदल देता है। जीवन को जानना सबसे महत्वपूर्ण है। जैसे जैसे हम जीवन और मृत्यु के विधान पर ग़ौर करते हैं, वैसे वैसे हम यह जान लेते हैं कि हमें इस दुनिया से बहुत जल्द विदा होना है।
मौत की सरहद के पार हमारे साथ क्या पेश आना है ?
यह जिज्ञासा मनुष्य को साधना तक ले आए तो वह बदलकर एक नया इंसान बन जाता है जो कहता है कि हम एक मालिक के बंदे हैं और अपने कर्मों के लिए उसके सामने जवाबदेह हैं। दूसरा इंसान भी हमारी तरह एक इंसान ही है। उसके साथ हमें हमदर्दी और भलाई से पेश आना चाहिए। यह उसका हक़ है। हमारे माल में ही नहीं, हमारे वक्त में और हमारी दुआओं में भी दूसरे इंसानों का हिस्सा है। बैर दुश्मन से भी नहीं करना चाहिए। सबके लिए मालिक से भलाई की दुआ करो।
ये सभी बातें हमें उपदेश लगती हैं और हम टाल जाते हैं। हम इन बातों को सही कहते हैं और चलते हैं किसी और तरीक़े पर। कभी हमारा मक़सद राजनीति होती है और कभी दौलत। राजनीति और दौलत के किसी भी हद तक नीचे उतर जाता है।
सूफ़ी भी आम आदमी ही होता है और हरेक आम आदमी जब चाहे तब सूफ़ी बन सकता है। जो हमारे लिए आज उपदेश और जनरल नॉलिज का सामान है वह सूफ़ियों का आचरण होता है। हमारा आचरण भी वही हो जाए तो बस हम हो गए सूफ़ी।
बस उनकी और हमारी आध्यात्मिक अनुभूतियों में अंतर रह जाता है। जिसका कारण होता है पवित्रता के स्तर और साधना में मेहनत में अंतर। जहां तक वे बड़ी मेहनत से पहुंचे वहां तक हम आसानी से पहुंच सकते हैं क्योंकि उनका अनुभव हमें मार्ग दिखाता है। यह मार्ग हमें दुनिया में ही दिव्य और पवित्र जीवन देता है, हमारे अंतस को आनंद से भर देता है। हमें विश्वास और संताष का धन देता है। हमें समाज में मान, प्रेम और सहयोग दिलाता है। छीनकर आदमी जो नहीं पा सकता, दूसरों को देकर उससे ज़्यादा पा लेता है। नीचे गिरकर आदमी जो नहीं पा सकता, ऊंचा उठकर उससे कहीं ज़्यादा पा लेता है।
हम दूसरों से छीन रहे हैं या उन्हें दे रहे हैं। हमें यह देखते रहना चाहिए।
‘यदुल उल्या ख़ैरूम्मिनस्सुफ़्ला‘
अर्थात ऊपर वाला हाथ बेहतर है नीचे वाले हाथ से।
देते रहो तो सदा ऊपर बने रहोगे।
दूसरों को अपना समय, अपना ज्ञान और अपनी दुआएं देते रहो।
बदले में दूसरे हमें क्या दे रहे हैं, यह देखना हमारा काम नहीं है। हमारा मार्ग निश्चित है, हमें इसी पर चलना है। ईश्वर का मार्ग यही है। वह सबको देता है। ईश्वर और इंसाने से प्रेम हो तभी इस पथ पर चलना मुमकिन है।
इसीलिए सूफ़ी इश्क़ और मुहब्बत पर ज़ोर देते हैं।
जिसे हर दम अपनी मौत याद हो तो वह किसी से नफ़रत करने के लायक़ ही नहीं बचता। आज इंसान मौत को भूल कर जी रहा है। मौत को भूलकर इंसान जिएगा तो उसके जीवन के स्तर में गिरावट आ जाएगी। वह कुछ भी कर सकता है। यही वजह है कि आज इंसान सब कुछ कर रहा है। किसी का कुछ भरोसा नहीं है कि कब कौन क्या कर दे ?
ये लोग ईश्वर-अल्लाह को याद करते हैं, तो उससे भी पवित्रता और प्रेम, ज्ञान और उदारता नहीं मांग पाते। जो चीज़ें कल्याण का आधार हैं, वे लोगों की नज़र में आज फ़ालतू की चीज़ें ठहर चुकी हैं, केवल इसलिए कि हम ग़ौर नहीं करते।
हम जीवन में ग़ौर नहीं करते और उसे जी रहे हैं। हम एक अपराध कर रहे हैं, दूसरों के साथ बाद में और अपने साथ पहले। हम मानवता के अपराधी हैं और यही चीज़ हमें ईश्वर का अपराधी बनाती है। अपराध दंड दिलाता है। उसका दंड हमें हर तरफ़ से घेरे हुए है। बाहर से सुख ही नहीं बल्कि अंदर से भी चैन ग़ायब है।
सूफ़ी हमें सुख-चैन का रास्ता दिखाते हैं और यह तुरंत मिलता है। किसी सूफ़ी के पास बैठकर देखिए। इसीलिए सूफ़ियों में सोहबत पर बहुत ज़ोर है। वे अपनी सोहबत में बैठने वालों को सुख-चैन की दौलत देते रहते हैं। जिसकी सोहबत में हम रहते हैं, उसी के जैसे हो जाते हैं।
कलाम भी सोहबत का बदल है। सूफ़ियों का कलाम आज भी दिल को सुकून देता है।
हज़रत निज़ामुददीन औलिया एक ऐसे ही सूफ़ी हैं। उनका कलाम आज भी हमें बहुत कुछ देता है। उनका ज़िक्र हम सबके लिए बाइसे ख़ैर है।

हज़रत निज़ामुददीन औलिया रह. के बारे में जानकारी देती हुई जनाब मनोज कुमार जी की एक पोस्ट

ख़्वाजा हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया

दरगाह ख़्वाजा हज़रत निज़ामुद्दीन
बाबा फ़रीद के अनेक शिष्यों में से हज़रत जमाल हंसवी, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, हज़रत अली अहमद साबिर, शेख़ बदरुद्दीन इशाक और शेख़ आरिफ़ बहुत प्रसिद्ध सूफ़ी संत हुए। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (1238-1325 ई.) तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के महान और चिश्ती सिलसिले के चौथे सूफ़ी संत थे। उनके पूर्वज बुख़ारा से आकर उत्तर प्रदेश के बदायूं बदायूं ज़िले में बस गए थे। बदायूं में ही उनका जन्म हुआ था। उनका बचपन काफ़ी ग़रीबी में बीता। पांच वर्ष की अवस्था में उनके सिर से पिता का साया उठ गया। पिता अहमद बदायनी के स्वर्गवास के बाद उनकी माता बीबी जुलेख़ा ने उनका लालन-पालन किया। जब वे बीस वर्ष के थे तो अजोधन में, जिसे आजकल पाकपट्टन शरीफ़ (पाकिस्तान) कहा जाता है, उनकी भेंट बाबा फ़रीद से हुई। बाबा फ़रीद ने उन्हें काफ़ी प्रोत्साहित किया और उन्हें अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ने की दीक्षा दी। ख़्वाजा औलिया 1258 ई. में दिल्ली आए और ग़्यासपुर में रहने लगे। वहां उन्होंने अपनी ख़ानक़ाह बनाई। इसी बस्ती को आजकल निज़ामुद्दीन कहा जाता है। वहीं से लगभग साठ साल तक उन्होंने अपनी आध्यात्मिक गतिविधियां ज़ारी रखी। उनकी ख़नक़ाह में सभी वर्ग के लोगों की भीड़ लगी रहती थी। 
गोरी सोये सेज पर, अरु मुख पर डारे केश
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहूं ओर।
उनकी अपनी बनाई हुई मस्जिद के आंगन में उनका भव्य मज़ार है। दक्षिण दिल्ली में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का मक़बरा सूफ़ियों के लिए ही नहीं अन्य मतावलंबियों के लिए भी एक पवित्र दरग़ाह है। इस्लामी कैलेण्डर के अनुसार प्रति वर्ष चौथे महीने की सतरहवीं तारीख़ को उनकी याद में उनकी दरगाह पर एक मेला लगता है जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों भाग लेते हैं।

(पोस्ट देखना अभी बाक़ी है ...)
http://www.testmanojiofs.com/2012/09/blog-post_5.html 

Thursday, July 26, 2012

दस चीज़ें दस चीज़ों को खा जाती हैं (नेक नसीहत)


हज़रत सय्यदना अली हिजवेरी दाता गंज बख्श रहमतुल्लाह अलैह
ने फ़रमाया है कि दस चीज़ें दस चीज़ों को खा जाती हैं-
1. तौबा गुनाहों को खा जाती है।
2. ग़ीबत (पीठ पीछे बुराई) नेक आमाल को खा जाती है।
3. ग़म उम्र को खा जाता है।
4. सदक़ा (दान) बलाओं को खा जाता है।
5. पशेमानी सख़ावत को खा जाती है।
6. नेकी बदी को खा जाती है।
7. झूठ रिज़क़ को खा जाता है।
8. ग़ुस्सा अक्ल को खा जाता है।
9. तकब्बुर (घमंड) इल्म को खा जाता है।
10. अद्ल (न्याय) ज़ुल्म को खा जाता है।

माहे रमज़ान की फ़ज़ीलत Ramzan



रमज़ान की फ़ज़ीलत व बरतरी के बारे में हज़रत शैख़ अब्दुल क़ादिर जीलानी रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि ‘‘रमज़ान गुनाहों से पाक होने का महीना है, अहले वफ़ा का महीना है और उन का महीना जो अल्लाह का ज़िक्र करने वाले हैं। अगर यह महीना तेरे दिल की दुरूस्तगी न करेगा, गुनाहों से न बचाएगा, तो फिर कौन सी चीज़ उन चीज़ों से तुझे बचाएगी। इस महीने में तो मोमिनों के दिल मारिफ़त व ईमान के नूर से रौशन हो जाते हैं।
हज़रत मुजददिद अलिफ़ सानी रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि अगर इस महीने में किसी आदमी को नेक आमाल की तौफ़ीक़ मिल जाए तो पूरे साल यह तौफ़ीक़ उस के शामिल ए हाल रहेगी और अगर यह महीना बेदिली, बेफ़िक्री, तरद्दुद व इन्तशार के साथ गुज़रेगा तो पूरा साल इसी हाल में गुज़रने का अंदेशा है क्योंकि इस महीने का एक एक लम्हा क़ीमती है।
अल्लामा इब्ने क़य्यिम रहमतुल्लाह अलैह ने रोज़े के बारे में फ़रमाया है कि ‘‘यह अहले तक़वा की लगाम, मुजाहिदीन की ढाल और अबरार मुक़र्रबीन की रियाज़त है।
इमाम ग़ज़ाली रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि ‘‘रोज़े का मक़सद यह है कि आदमी अख़लाक़े इलाहिय्या में से एक अख़लाक़ को तो अपने अंदर पैदा कर ले जिसे समदियत कहते हैं। वो यह है कि इम्कानी हद तक फ़रिश्तों की तक़लीद करते हुए ख्वाहिशात से ख़ाली हो जाए। जब यह अपनी ख्वाहिशात पर ग़ालिब आ जाता है तो आला इल्लिय्यीन और फ़रिश्तों के आफ़ाक़ तक पहुंच जाता है।
हज़रत शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी फ़रमाते हैं कि रोज़ा भूख प्यास, मैथुन को छोड़ना, तर्के मुबाशिरत, ज़ुबान, दिल और जिस्म के दूसरे अंगों को क़ाबू करने का महीना है।
चुनांचे रमज़ान रहमतों के नुज़ूल, बरकात के ज़ुहूर, सआदतों के हुसूल और अल्लाह के फ़ज़्ल की तलाश व जुस्तजू का महीना है। इस महीने में रहमतें इस तरह नाज़िल होती हैं कि हम उन का अहाता भी नहीं कर सकते। 
लेखक - हमीदुल्लाह क़ासमी कबीर नगरी, राष्ट्रीय सहारा उर्दू दिनांक 26 जुलाई 2012 पृष्ठ 4, 
लेख ‘ईनाम व इकराम का महीना है‘ का एक अंश

Wednesday, May 23, 2012

सूफ़ी कौन है और उसका क्या काम है ?

पर हमारी टिप्पणी
सूफ़ी कौन है और उसका क्या काम है ?
सूफ़ी वह जिज्ञासु है जो जानना चाहता है कि उसकी हक़ीक़त क्या है और उसे किसने पैदा किया है ?
इन सवालों के लिए वह अपने तन-मन को निर्मल करता है। एकांत में मौन रहकर इन सवालों के जवाब की तलाश करता है।
जब ये सवाल उसके पूरे वुजूद पर छा जाते हैं तो उस पर उसकी रूहानी हक़ीक़त ज़ाहिर हो जाती है। यहीं पर उसे रूहानी ताक़त मिलती है और उसके बाद वह ख़ुदा के नूर की तजल्ली देखता है। ख़ुदा की तजल्लियां बेशुमार हैं और उनकी शक्लें भी बेशुमार हैं। तजल्ली ख़ुदा नहीं होती। ख़ुदा की तजल्ली साधक को तसल्ली देती है।
मुस्लिम सूफ़ी इन तजल्लियों से आगे बढ़ता है उस तजल्ली की तलाश में जिसे ‘तजल्ली ज़ाती बरक़ी‘ कहते हैं।
हर चीज़ नीयत और इरादे, तड़प और लगन के साथ वाबस्ता है।
शरीअत की पाबंदी में सूफ़ी और आम लोग बराबर हैं लेकिन जो चीज़ उन्हें ख़ास बनाती है, वह हैं उनके रूहानी तजर्बे।
ये तजर्बे आज भी सबके लिए उपलब्ध हैं।
ये तजर्बे उतने कठिन नहीं हैं जितने कि पढ़ने में लगते हैं।
एक एक क़दम आगे बढ़ा जाए तो सफ़र एक दिन तय हो ही जाता है। जबकि पूरे सफ़र का रूट एक दम देख लिया जाए तो हाथ पांव फूल जाते हैं।

आपकी पोस्ट अच्छी है।
शुक्रिया !

Thursday, May 17, 2012

रूहानी इल्म के लिए ज़ाहिरी इल्म भी ज़रूरी है Ruhani Haqiqat

अल्लाह ने आदम अलैहिस्सलाम की तख़लीक़ की और उन्हें सारी चीज़ों के नामों का इल्म दिया। अल्लाह ने सारे फ़रिश्तों को हुक्म दिया कि आदम के सामने झुक जाओ।
फ़रिश्तों ने जानना चाहा कि आदम के अंदर ऐसी क्या ख़ास बात है ?
तब अल्लाह ने उनसे चीज़ों के नाम पूछे। सब चीज़ों के नाम कोई भी फ़रिश्ता न बता सका। तब अल्लाह ने आदम को हुक्म दिया कि आप इन्हें चीज़ों के नाम बताईये।
आदम ने फ़रिश्तों को चीज़ों के नाम बता दिए। यही आदम की ख़ासियत थी, जिसे देखकर सारे फरिश्तों ने उन्हें अपने से श्रेष्ठ माना और वे उनके सामने झुक गए।
ज्ञान सदा ही शक्ति का कारण होता है। जिसे जितना ज्ञान होता है, उसकी शक्ति भी उतनी ही होती है।
ज्ञान के बल पर ही आदमी चीज़ों को इस्तेमाल करता है और ज्ञान के बल पर ही सही-ग़लत का फ़ैसला करता है।
ये तो बाहर की दुनिया से मुताल्लिक़ बातें हैं।
एक दुनिया इंसान के अपने अंदर भी होती है।
बाहर की दुनिया अंदर की दुनिया से जुड़ी हुई है। दोनों एक दूसरे पर असर डालती रहती हैं।
आदम को जो ज्ञान अल्लाह की तरफ़ से मिला था। उसे उन्होंने अपनी औलाद को सिखाया और उनकी औलाद होने की वजह वह ज्ञान हरेक आदमी के अंदर ख़ुद ब ख़ुद उसी तरह मुन्तक़िल हुआ जैसे कि उनका रूप हरेक आदमी को ख़ुद ब ख़ुद मिला।
बाहर की दुनिया का ज्ञान रखने वालों को वैज्ञानिक कहा गया और अंदर की दुनिया का ज्ञान रखने वालों को सूफ़ी संत।
कोई भी आदमी वैज्ञानिक बन सकता है और कोई भी आदमी सूफ़ी संत बन सकता है। जिसकी जैसी शक्ति और साधना होगी, वह उसी स्तर का वैज्ञानिक या सूफ़ी संत बन सकता है।

एक जीव वैज्ञानिक जब अपनी हक़ीक़त देखता है तो उसे वहां एक डीएनए की संरचना नज़र आती है और हरेक आदमी की संरचना वही एक है।
भौतिक संरचना की तरह आदमी की एक रूहानी हक़ीक़त भी होती है। भौतिक संरचना आंख खोलकर देखी जाती है तो रूहानी हक़ीक़त के लिए आंख बंद करने की ज़रूरत पेश आती है।
जब आदमी कुछ समय मौन रहकर एकांत में ध्यान करता है तो वह अपनी रूहानी हक़ीक़त को देख लेता है। तब वह देखता है कि हरेक आदमी की रूहानी हक़ीक़त एक ही है। एक ही रूह का नूर हरेक नर नारी में व्याप्त है।
न तो भौतिक डीएनए कुछ बोलकर बताता है और न यह रूहानी प्रकाश कुछ बोलकर बताता है। इन्हें साधक को अपनी अक्ल से समझना पड़ता है।
कोई कोई साधक इस रूह को ख़ुदा समझने की ग़लती कर जाता है।
सूफ़ी संतों में इस तरह की ग़लतियां करने वाले बहुत से साधक मिलेंगे।
ज्ञान का दायरा भौतिक हो या रूहानी, ग़लती की संभावना बराबर बनी रहती है।
ग़लतियों से पाक केवल अल्लाह है।
अपने पैग़बरों के ज़रिये उसने बार बार इंसानों को हिदायत दी है। इसीलिए मुस्लिम सूफ़ियों ने कहा है कि कोई भी मुकाशिफ़ा (आत्म-दर्शन संबंधी अनुभूति) तब तक मान्य नहीं है जब तक कि उसे दो गवाहों पर पेश न कर दिया जाए यानि कि उसके हक़ क़ुरआन व सुन्नत से दलील न मिल जाए।
पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि ‘दो चीज़ें ऐसी हैं कि जब तक तुम इन्हें थामे रखोगे हरगिज़ गुमराह नहीं हो सकते, एक क़ुरआन और दूसरे मेरी सुन्नत (यानि मेरा तरीक़ा)। (भावार्थ हदीस)
इंसान को ज़िंदगी गुज़ारने के लिए चीज़ों के ज्ञान की भी ज़रूरत है और आत्मज्ञान की भी।
आदमी बाहर की चीज़ों में चिंतन कर ले या फिर अपने अंदर चिंतन कर ले। बहुत कुछ पाने के बावजूद और बहुत कुछ देखने के बावजूद वह उसे अपने चिंतन से यह कभी पता नहीं चल सकता कि ख़ुदा और बंदों के हक़ उस पर क्या हैं और वह उन्हें किस तरह अदा करे ?

यह बात किसी भी मुराक़बे-ध्यान और समाधि से नहीं मिलती। यह बात सिर्फ़ पैग़ंबर स. पर ईमान लाने से और उनके तरीक़े पर चलने से हासिल होती है। यही वजह है कि आला रूहानी इल्म रखने वाले तमाम मुस्लिम सूफ़ी इस्लामी शरीअत के वैसे ही पाबंद रहे जैसे कि आम आलिम बल्कि वे आम आलिमों से बढ़कर पाबंद थे।
तमाम सूफ़ी सिलसिलों के इमाम उलूम ए मुकाशिफ़ा हासिल करने से पहले अक़्ली उलूम हासिल कर चुके थे और अपने मुरीदों को भी वे यही ताकीद करते थे।
ज़ाहिरी अक़्ली उलूम हासिल न हो तो आदमी कभी नहीं समझ सकता कि साधना के दौरान उसने क्या देखा और किस प्रतीक का अर्थ क्या है ?
जिस तरह आम आदमी सपने जो कुछ देखता है तो बहुत बार सपने का प्रतीक अर्थ मुराद होता है और उसकी ताबीर लेनी पड़ती है। मुराक़बे और ध्यान में भी ऐसा अक्सर होता है। ज़ाहिरी इल्म न रखने वाले यहां अक्सर भटक जाते हैं।
जब उन्हें रूह का नूर नज़र आता है और वे अपनी अनुपम नूरानी हक़ीक़त देखते हैं तो वे समझते हैं कि यह ख़ुदा है और अब वे ख़ुद ख़ुदा हो गए हैं।
जब इस बात को वे कविता और दोहों में गाते हैं तो उनसे भी कम जानने वाले भी उन्हें ख़ुदा मान लेते हैं।
वे देखते हैं कि इस आदमी ने ज़िंदगी में कभी झूठ नहीं बोला तो इसकी यह बात भी सही होगी कि अब यह ख़ुदा हो गया होगा।
जबकि हक़ीक़त यह है कि सच बोलना अलग बात है और हरेक बात की हक़ीक़त को समझ लेना अलग बात है।
सच बोलने वाले भी किसी बात को समझने से चूक सकते हैं।
रूहानी मामले में गुरू की एक चूक उसके लाखों-करोड़ों लोगों को मुग़ालते में डाल सकती है।

आज भारत में हज़ारों ऐसे गुरू हैं जो अपने ईश्वर और ईश्वर का अंश होने का दावा करते हैं और भारत क़र्ज़ में दबा हुआ भी है और क्राइम का ग्राफ़ भी लगातार बढ़ता जा रहा है। अगर उनसे कहा जाए कि आप इतने सारे लोग साक्षात ईश्वर हैं तो भारत का क़र्ज़ ही उतार दीजिए या जुर्म का ख़ात्मा ही कर दीजिए।
तब वे ऐसा न कर पाएंगे।
वे सब मिलकर किसी एक मरी हुई मक्खी तक को ज़िंदा नहीं कर सकते।
इसके बावजूद न तो वे अपने दावे से बाज़ आते हैं और न ही उनके मानने वाले कभी यह सोचते हैं कि दवा खाने वाला यह आदमी ईश्वर-अल्लाह कैसे हो सकता है ?
रूहानियत के नाम धंधेबाज़ी और पाखंड फैला हुआ है।
यही पाखंडी आज साधकों को भ्रमित कर रहे हैं।
मालिक को राज़ी करने की लगन सच्ची हो और साधक अपनी अक्ल खुली रखे तो ही वह इस तरह के भ्रम से बच सकता है।
रूहानी साधनाएं ज़रूरी हैं लेकिन पोथी का ज्ञान भी बहुत ज़रूरी है और एक सच्चा गुरू तो बुनियादी ज़रूरत है।