जीवन को जानने का स्तर जीवन जीने के स्तर को बदल देता है। जीवन को जानना सबसे महत्वपूर्ण है। जैसे जैसे हम जीवन और मृत्यु के विधान पर ग़ौर करते हैं, वैसे वैसे हम यह जान लेते हैं कि हमें इस दुनिया से बहुत जल्द विदा होना है।
मौत की सरहद के पार हमारे साथ क्या पेश आना है ?
यह जिज्ञासा मनुष्य को साधना तक ले आए तो वह बदलकर एक नया इंसान बन जाता है जो कहता है कि हम एक मालिक के बंदे हैं और अपने कर्मों के लिए उसके सामने जवाबदेह हैं। दूसरा इंसान भी हमारी तरह एक इंसान ही है। उसके साथ हमें हमदर्दी और भलाई से पेश आना चाहिए। यह उसका हक़ है। हमारे माल में ही नहीं, हमारे वक्त में और हमारी दुआओं में भी दूसरे इंसानों का हिस्सा है। बैर दुश्मन से भी नहीं करना चाहिए। सबके लिए मालिक से भलाई की दुआ करो।
ये सभी बातें हमें उपदेश लगती हैं और हम टाल जाते हैं। हम इन बातों को सही कहते हैं और चलते हैं किसी और तरीक़े पर। कभी हमारा मक़सद राजनीति होती है और कभी दौलत। राजनीति और दौलत के किसी भी हद तक नीचे उतर जाता है।
सूफ़ी भी आम आदमी ही होता है और हरेक आम आदमी जब चाहे तब सूफ़ी बन सकता है। जो हमारे लिए आज उपदेश और जनरल नॉलिज का सामान है वह सूफ़ियों का आचरण होता है। हमारा आचरण भी वही हो जाए तो बस हम हो गए सूफ़ी।
बस उनकी और हमारी आध्यात्मिक अनुभूतियों में अंतर रह जाता है। जिसका कारण होता है पवित्रता के स्तर और साधना में मेहनत में अंतर। जहां तक वे बड़ी मेहनत से पहुंचे वहां तक हम आसानी से पहुंच सकते हैं क्योंकि उनका अनुभव हमें मार्ग दिखाता है। यह मार्ग हमें दुनिया में ही दिव्य और पवित्र जीवन देता है, हमारे अंतस को आनंद से भर देता है। हमें विश्वास और संताष का धन देता है। हमें समाज में मान, प्रेम और सहयोग दिलाता है। छीनकर आदमी जो नहीं पा सकता, दूसरों को देकर उससे ज़्यादा पा लेता है। नीचे गिरकर आदमी जो नहीं पा सकता, ऊंचा उठकर उससे कहीं ज़्यादा पा लेता है।
हम दूसरों से छीन रहे हैं या उन्हें दे रहे हैं। हमें यह देखते रहना चाहिए।
‘यदुल उल्या ख़ैरूम्मिनस्सुफ़्ला‘
अर्थात ऊपर वाला हाथ बेहतर है नीचे वाले हाथ से।
देते रहो तो सदा ऊपर बने रहोगे।
दूसरों को अपना समय, अपना ज्ञान और अपनी दुआएं देते रहो।
बदले में दूसरे हमें क्या दे रहे हैं, यह देखना हमारा काम नहीं है। हमारा मार्ग निश्चित है, हमें इसी पर चलना है। ईश्वर का मार्ग यही है। वह सबको देता है। ईश्वर और इंसाने से प्रेम हो तभी इस पथ पर चलना मुमकिन है।
इसीलिए सूफ़ी इश्क़ और मुहब्बत पर ज़ोर देते हैं।
जिसे हर दम अपनी मौत याद हो तो वह किसी से नफ़रत करने के लायक़ ही नहीं बचता। आज इंसान मौत को भूल कर जी रहा है। मौत को भूलकर इंसान जिएगा तो उसके जीवन के स्तर में गिरावट आ जाएगी। वह कुछ भी कर सकता है। यही वजह है कि आज इंसान सब कुछ कर रहा है। किसी का कुछ भरोसा नहीं है कि कब कौन क्या कर दे ?
ये लोग ईश्वर-अल्लाह को याद करते हैं, तो उससे भी पवित्रता और प्रेम, ज्ञान और उदारता नहीं मांग पाते। जो चीज़ें कल्याण का आधार हैं, वे लोगों की नज़र में आज फ़ालतू की चीज़ें ठहर चुकी हैं, केवल इसलिए कि हम ग़ौर नहीं करते।
हम जीवन में ग़ौर नहीं करते और उसे जी रहे हैं। हम एक अपराध कर रहे हैं, दूसरों के साथ बाद में और अपने साथ पहले। हम मानवता के अपराधी हैं और यही चीज़ हमें ईश्वर का अपराधी बनाती है। अपराध दंड दिलाता है। उसका दंड हमें हर तरफ़ से घेरे हुए है। बाहर से सुख ही नहीं बल्कि अंदर से भी चैन ग़ायब है।
सूफ़ी हमें सुख-चैन का रास्ता दिखाते हैं और यह तुरंत मिलता है। किसी सूफ़ी के पास बैठकर देखिए। इसीलिए सूफ़ियों में सोहबत पर बहुत ज़ोर है। वे अपनी सोहबत में बैठने वालों को सुख-चैन की दौलत देते रहते हैं। जिसकी सोहबत में हम रहते हैं, उसी के जैसे हो जाते हैं।
कलाम भी सोहबत का बदल है। सूफ़ियों का कलाम आज भी दिल को सुकून देता है।
हज़रत निज़ामुददीन औलिया एक ऐसे ही सूफ़ी हैं। उनका कलाम आज भी हमें बहुत कुछ देता है। उनका ज़िक्र हम सबके लिए बाइसे ख़ैर है।
हज़रत निज़ामुददीन औलिया रह. के बारे में जानकारी देती हुई जनाब मनोज कुमार जी की एक पोस्ट
बाबा फ़रीद के अनेक शिष्यों में से हज़रत जमाल हंसवी, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, हज़रत अली अहमद साबिर, शेख़ बदरुद्दीन इशाक और शेख़ आरिफ़ बहुत प्रसिद्ध सूफ़ी संत हुए। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया
(1238-1325 ई.) तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के महान और चिश्ती सिलसिले के
चौथे सूफ़ी संत थे। उनके पूर्वज बुख़ारा से आकर उत्तर प्रदेश के बदायूं
बदायूं ज़िले में बस गए थे। बदायूं में ही उनका जन्म हुआ था। उनका बचपन काफ़ी
ग़रीबी में बीता। पांच वर्ष की अवस्था में उनके सिर से पिता का साया उठ
गया। पिता अहमद बदायनी के स्वर्गवास के बाद उनकी माता बीबी जुलेख़ा ने उनका
लालन-पालन किया। जब वे बीस वर्ष के थे तो अजोधन में, जिसे आजकल पाकपट्टन
शरीफ़ (पाकिस्तान) कहा जाता है, उनकी भेंट बाबा फ़रीद से हुई। बाबा फ़रीद ने
उन्हें काफ़ी प्रोत्साहित किया और उन्हें अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ने की
दीक्षा दी। ख़्वाजा औलिया 1258 ई. में दिल्ली आए और ग़्यासपुर में रहने लगे।
वहां उन्होंने अपनी ख़ानक़ाह बनाई। इसी बस्ती को आजकल निज़ामुद्दीन कहा जाता
है। वहीं से लगभग साठ साल तक उन्होंने अपनी आध्यात्मिक गतिविधियां ज़ारी
रखी। उनकी ख़नक़ाह में सभी वर्ग के लोगों की भीड़ लगी रहती थी।
गोरी सोये सेज पर, अरु मुख पर डारे केश
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहूं ओर।
उनकी
अपनी बनाई हुई मस्जिद के आंगन में उनका भव्य मज़ार है। दक्षिण दिल्ली में
हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का मक़बरा सूफ़ियों के लिए ही नहीं अन्य मतावलंबियों
के लिए भी एक पवित्र दरग़ाह है। इस्लामी कैलेण्डर के अनुसार प्रति वर्ष चौथे
महीने की सतरहवीं तारीख़ को उनकी याद में उनकी दरगाह पर एक मेला लगता है
जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों भाग लेते हैं।
(पोस्ट देखना अभी बाक़ी है ...)
http://www.testmanojiofs.com/2012/09/blog-post_5.html