अल्लाह ने आदम अलैहिस्सलाम की तख़लीक़ की और उन्हें सारी चीज़ों के नामों का इल्म दिया। अल्लाह ने सारे फ़रिश्तों को हुक्म दिया कि आदम के सामने झुक जाओ।
फ़रिश्तों ने जानना चाहा कि आदम के अंदर ऐसी क्या ख़ास बात है ?
तब अल्लाह ने उनसे चीज़ों के नाम पूछे। सब चीज़ों के नाम कोई भी फ़रिश्ता न बता सका। तब अल्लाह ने आदम को हुक्म दिया कि आप इन्हें चीज़ों के नाम बताईये।
आदम ने फ़रिश्तों को चीज़ों के नाम बता दिए। यही आदम की ख़ासियत थी, जिसे देखकर सारे फरिश्तों ने उन्हें अपने से श्रेष्ठ माना और वे उनके सामने झुक गए।
ज्ञान सदा ही शक्ति का कारण होता है। जिसे जितना ज्ञान होता है, उसकी शक्ति भी उतनी ही होती है।
ज्ञान के बल पर ही आदमी चीज़ों को इस्तेमाल करता है और ज्ञान के बल पर ही सही-ग़लत का फ़ैसला करता है।
ये तो बाहर की दुनिया से मुताल्लिक़ बातें हैं।
एक दुनिया इंसान के अपने अंदर भी होती है।
बाहर की दुनिया अंदर की दुनिया से जुड़ी हुई है। दोनों एक दूसरे पर असर डालती रहती हैं।
आदम को जो ज्ञान अल्लाह की तरफ़ से मिला था। उसे उन्होंने अपनी औलाद को सिखाया और उनकी औलाद होने की वजह वह ज्ञान हरेक आदमी के अंदर ख़ुद ब ख़ुद उसी तरह मुन्तक़िल हुआ जैसे कि उनका रूप हरेक आदमी को ख़ुद ब ख़ुद मिला।
बाहर की दुनिया का ज्ञान रखने वालों को वैज्ञानिक कहा गया और अंदर की दुनिया का ज्ञान रखने वालों को सूफ़ी संत।
कोई भी आदमी वैज्ञानिक बन सकता है और कोई भी आदमी सूफ़ी संत बन सकता है। जिसकी जैसी शक्ति और साधना होगी, वह उसी स्तर का वैज्ञानिक या सूफ़ी संत बन सकता है।
एक जीव वैज्ञानिक जब अपनी हक़ीक़त देखता है तो उसे वहां एक डीएनए की संरचना नज़र आती है और हरेक आदमी की संरचना वही एक है।
भौतिक संरचना की तरह आदमी की एक रूहानी हक़ीक़त भी होती है। भौतिक संरचना आंख खोलकर देखी जाती है तो रूहानी हक़ीक़त के लिए आंख बंद करने की ज़रूरत पेश आती है।
जब आदमी कुछ समय मौन रहकर एकांत में ध्यान करता है तो वह अपनी रूहानी हक़ीक़त को देख लेता है। तब वह देखता है कि हरेक आदमी की रूहानी हक़ीक़त एक ही है। एक ही रूह का नूर हरेक नर नारी में व्याप्त है।
न तो भौतिक डीएनए कुछ बोलकर बताता है और न यह रूहानी प्रकाश कुछ बोलकर बताता है। इन्हें साधक को अपनी अक्ल से समझना पड़ता है।
कोई कोई साधक इस रूह को ख़ुदा समझने की ग़लती कर जाता है।
सूफ़ी संतों में इस तरह की ग़लतियां करने वाले बहुत से साधक मिलेंगे।
ज्ञान का दायरा भौतिक हो या रूहानी, ग़लती की संभावना बराबर बनी रहती है।
ग़लतियों से पाक केवल अल्लाह है।
अपने पैग़बरों के ज़रिये उसने बार बार इंसानों को हिदायत दी है। इसीलिए मुस्लिम सूफ़ियों ने कहा है कि कोई भी मुकाशिफ़ा (आत्म-दर्शन संबंधी अनुभूति) तब तक मान्य नहीं है जब तक कि उसे दो गवाहों पर पेश न कर दिया जाए यानि कि उसके हक़ क़ुरआन व सुन्नत से दलील न मिल जाए।
पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि ‘दो चीज़ें ऐसी हैं कि जब तक तुम इन्हें थामे रखोगे हरगिज़ गुमराह नहीं हो सकते, एक क़ुरआन और दूसरे मेरी सुन्नत (यानि मेरा तरीक़ा)। (भावार्थ हदीस)
इंसान को ज़िंदगी गुज़ारने के लिए चीज़ों के ज्ञान की भी ज़रूरत है और आत्मज्ञान की भी।
आदमी बाहर की चीज़ों में चिंतन कर ले या फिर अपने अंदर चिंतन कर ले। बहुत कुछ पाने के बावजूद और बहुत कुछ देखने के बावजूद वह उसे अपने चिंतन से यह कभी पता नहीं चल सकता कि ख़ुदा और बंदों के हक़ उस पर क्या हैं और वह उन्हें किस तरह अदा करे ?
यह बात किसी भी मुराक़बे-ध्यान और समाधि से नहीं मिलती। यह बात सिर्फ़ पैग़ंबर स. पर ईमान लाने से और उनके तरीक़े पर चलने से हासिल होती है। यही वजह है कि आला रूहानी इल्म रखने वाले तमाम मुस्लिम सूफ़ी इस्लामी शरीअत के वैसे ही पाबंद रहे जैसे कि आम आलिम बल्कि वे आम आलिमों से बढ़कर पाबंद थे।
तमाम सूफ़ी सिलसिलों के इमाम उलूम ए मुकाशिफ़ा हासिल करने से पहले अक़्ली उलूम हासिल कर चुके थे और अपने मुरीदों को भी वे यही ताकीद करते थे।
ज़ाहिरी अक़्ली उलूम हासिल न हो तो आदमी कभी नहीं समझ सकता कि साधना के दौरान उसने क्या देखा और किस प्रतीक का अर्थ क्या है ?
जिस तरह आम आदमी सपने जो कुछ देखता है तो बहुत बार सपने का प्रतीक अर्थ मुराद होता है और उसकी ताबीर लेनी पड़ती है। मुराक़बे और ध्यान में भी ऐसा अक्सर होता है। ज़ाहिरी इल्म न रखने वाले यहां अक्सर भटक जाते हैं।
जब उन्हें रूह का नूर नज़र आता है और वे अपनी अनुपम नूरानी हक़ीक़त देखते हैं तो वे समझते हैं कि यह ख़ुदा है और अब वे ख़ुद ख़ुदा हो गए हैं।
जब इस बात को वे कविता और दोहों में गाते हैं तो उनसे भी कम जानने वाले भी उन्हें ख़ुदा मान लेते हैं।
वे देखते हैं कि इस आदमी ने ज़िंदगी में कभी झूठ नहीं बोला तो इसकी यह बात भी सही होगी कि अब यह ख़ुदा हो गया होगा।
जबकि हक़ीक़त यह है कि सच बोलना अलग बात है और हरेक बात की हक़ीक़त को समझ लेना अलग बात है।
सच बोलने वाले भी किसी बात को समझने से चूक सकते हैं।
रूहानी मामले में गुरू की एक चूक उसके लाखों-करोड़ों लोगों को मुग़ालते में डाल सकती है।
आज भारत में हज़ारों ऐसे गुरू हैं जो अपने ईश्वर और ईश्वर का अंश होने का दावा करते हैं और भारत क़र्ज़ में दबा हुआ भी है और क्राइम का ग्राफ़ भी लगातार बढ़ता जा रहा है। अगर उनसे कहा जाए कि आप इतने सारे लोग साक्षात ईश्वर हैं तो भारत का क़र्ज़ ही उतार दीजिए या जुर्म का ख़ात्मा ही कर दीजिए।
तब वे ऐसा न कर पाएंगे।
वे सब मिलकर किसी एक मरी हुई मक्खी तक को ज़िंदा नहीं कर सकते।
इसके बावजूद न तो वे अपने दावे से बाज़ आते हैं और न ही उनके मानने वाले कभी यह सोचते हैं कि दवा खाने वाला यह आदमी ईश्वर-अल्लाह कैसे हो सकता है ?
रूहानियत के नाम धंधेबाज़ी और पाखंड फैला हुआ है।
यही पाखंडी आज साधकों को भ्रमित कर रहे हैं।
मालिक को राज़ी करने की लगन सच्ची हो और साधक अपनी अक्ल खुली रखे तो ही वह इस तरह के भ्रम से बच सकता है।
रूहानी साधनाएं ज़रूरी हैं लेकिन पोथी का ज्ञान भी बहुत ज़रूरी है और एक सच्चा गुरू तो बुनियादी ज़रूरत है।
फ़रिश्तों ने जानना चाहा कि आदम के अंदर ऐसी क्या ख़ास बात है ?
तब अल्लाह ने उनसे चीज़ों के नाम पूछे। सब चीज़ों के नाम कोई भी फ़रिश्ता न बता सका। तब अल्लाह ने आदम को हुक्म दिया कि आप इन्हें चीज़ों के नाम बताईये।
आदम ने फ़रिश्तों को चीज़ों के नाम बता दिए। यही आदम की ख़ासियत थी, जिसे देखकर सारे फरिश्तों ने उन्हें अपने से श्रेष्ठ माना और वे उनके सामने झुक गए।
ज्ञान सदा ही शक्ति का कारण होता है। जिसे जितना ज्ञान होता है, उसकी शक्ति भी उतनी ही होती है।
ज्ञान के बल पर ही आदमी चीज़ों को इस्तेमाल करता है और ज्ञान के बल पर ही सही-ग़लत का फ़ैसला करता है।
ये तो बाहर की दुनिया से मुताल्लिक़ बातें हैं।
एक दुनिया इंसान के अपने अंदर भी होती है।
बाहर की दुनिया अंदर की दुनिया से जुड़ी हुई है। दोनों एक दूसरे पर असर डालती रहती हैं।
आदम को जो ज्ञान अल्लाह की तरफ़ से मिला था। उसे उन्होंने अपनी औलाद को सिखाया और उनकी औलाद होने की वजह वह ज्ञान हरेक आदमी के अंदर ख़ुद ब ख़ुद उसी तरह मुन्तक़िल हुआ जैसे कि उनका रूप हरेक आदमी को ख़ुद ब ख़ुद मिला।
बाहर की दुनिया का ज्ञान रखने वालों को वैज्ञानिक कहा गया और अंदर की दुनिया का ज्ञान रखने वालों को सूफ़ी संत।
कोई भी आदमी वैज्ञानिक बन सकता है और कोई भी आदमी सूफ़ी संत बन सकता है। जिसकी जैसी शक्ति और साधना होगी, वह उसी स्तर का वैज्ञानिक या सूफ़ी संत बन सकता है।
एक जीव वैज्ञानिक जब अपनी हक़ीक़त देखता है तो उसे वहां एक डीएनए की संरचना नज़र आती है और हरेक आदमी की संरचना वही एक है।
भौतिक संरचना की तरह आदमी की एक रूहानी हक़ीक़त भी होती है। भौतिक संरचना आंख खोलकर देखी जाती है तो रूहानी हक़ीक़त के लिए आंख बंद करने की ज़रूरत पेश आती है।
जब आदमी कुछ समय मौन रहकर एकांत में ध्यान करता है तो वह अपनी रूहानी हक़ीक़त को देख लेता है। तब वह देखता है कि हरेक आदमी की रूहानी हक़ीक़त एक ही है। एक ही रूह का नूर हरेक नर नारी में व्याप्त है।
न तो भौतिक डीएनए कुछ बोलकर बताता है और न यह रूहानी प्रकाश कुछ बोलकर बताता है। इन्हें साधक को अपनी अक्ल से समझना पड़ता है।
कोई कोई साधक इस रूह को ख़ुदा समझने की ग़लती कर जाता है।
सूफ़ी संतों में इस तरह की ग़लतियां करने वाले बहुत से साधक मिलेंगे।
ज्ञान का दायरा भौतिक हो या रूहानी, ग़लती की संभावना बराबर बनी रहती है।
ग़लतियों से पाक केवल अल्लाह है।
अपने पैग़बरों के ज़रिये उसने बार बार इंसानों को हिदायत दी है। इसीलिए मुस्लिम सूफ़ियों ने कहा है कि कोई भी मुकाशिफ़ा (आत्म-दर्शन संबंधी अनुभूति) तब तक मान्य नहीं है जब तक कि उसे दो गवाहों पर पेश न कर दिया जाए यानि कि उसके हक़ क़ुरआन व सुन्नत से दलील न मिल जाए।
पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि ‘दो चीज़ें ऐसी हैं कि जब तक तुम इन्हें थामे रखोगे हरगिज़ गुमराह नहीं हो सकते, एक क़ुरआन और दूसरे मेरी सुन्नत (यानि मेरा तरीक़ा)। (भावार्थ हदीस)
इंसान को ज़िंदगी गुज़ारने के लिए चीज़ों के ज्ञान की भी ज़रूरत है और आत्मज्ञान की भी।
आदमी बाहर की चीज़ों में चिंतन कर ले या फिर अपने अंदर चिंतन कर ले। बहुत कुछ पाने के बावजूद और बहुत कुछ देखने के बावजूद वह उसे अपने चिंतन से यह कभी पता नहीं चल सकता कि ख़ुदा और बंदों के हक़ उस पर क्या हैं और वह उन्हें किस तरह अदा करे ?
यह बात किसी भी मुराक़बे-ध्यान और समाधि से नहीं मिलती। यह बात सिर्फ़ पैग़ंबर स. पर ईमान लाने से और उनके तरीक़े पर चलने से हासिल होती है। यही वजह है कि आला रूहानी इल्म रखने वाले तमाम मुस्लिम सूफ़ी इस्लामी शरीअत के वैसे ही पाबंद रहे जैसे कि आम आलिम बल्कि वे आम आलिमों से बढ़कर पाबंद थे।
तमाम सूफ़ी सिलसिलों के इमाम उलूम ए मुकाशिफ़ा हासिल करने से पहले अक़्ली उलूम हासिल कर चुके थे और अपने मुरीदों को भी वे यही ताकीद करते थे।
ज़ाहिरी अक़्ली उलूम हासिल न हो तो आदमी कभी नहीं समझ सकता कि साधना के दौरान उसने क्या देखा और किस प्रतीक का अर्थ क्या है ?
जिस तरह आम आदमी सपने जो कुछ देखता है तो बहुत बार सपने का प्रतीक अर्थ मुराद होता है और उसकी ताबीर लेनी पड़ती है। मुराक़बे और ध्यान में भी ऐसा अक्सर होता है। ज़ाहिरी इल्म न रखने वाले यहां अक्सर भटक जाते हैं।
जब उन्हें रूह का नूर नज़र आता है और वे अपनी अनुपम नूरानी हक़ीक़त देखते हैं तो वे समझते हैं कि यह ख़ुदा है और अब वे ख़ुद ख़ुदा हो गए हैं।
जब इस बात को वे कविता और दोहों में गाते हैं तो उनसे भी कम जानने वाले भी उन्हें ख़ुदा मान लेते हैं।
वे देखते हैं कि इस आदमी ने ज़िंदगी में कभी झूठ नहीं बोला तो इसकी यह बात भी सही होगी कि अब यह ख़ुदा हो गया होगा।
जबकि हक़ीक़त यह है कि सच बोलना अलग बात है और हरेक बात की हक़ीक़त को समझ लेना अलग बात है।
सच बोलने वाले भी किसी बात को समझने से चूक सकते हैं।
रूहानी मामले में गुरू की एक चूक उसके लाखों-करोड़ों लोगों को मुग़ालते में डाल सकती है।
आज भारत में हज़ारों ऐसे गुरू हैं जो अपने ईश्वर और ईश्वर का अंश होने का दावा करते हैं और भारत क़र्ज़ में दबा हुआ भी है और क्राइम का ग्राफ़ भी लगातार बढ़ता जा रहा है। अगर उनसे कहा जाए कि आप इतने सारे लोग साक्षात ईश्वर हैं तो भारत का क़र्ज़ ही उतार दीजिए या जुर्म का ख़ात्मा ही कर दीजिए।
तब वे ऐसा न कर पाएंगे।
वे सब मिलकर किसी एक मरी हुई मक्खी तक को ज़िंदा नहीं कर सकते।
इसके बावजूद न तो वे अपने दावे से बाज़ आते हैं और न ही उनके मानने वाले कभी यह सोचते हैं कि दवा खाने वाला यह आदमी ईश्वर-अल्लाह कैसे हो सकता है ?
रूहानियत के नाम धंधेबाज़ी और पाखंड फैला हुआ है।
यही पाखंडी आज साधकों को भ्रमित कर रहे हैं।
मालिक को राज़ी करने की लगन सच्ची हो और साधक अपनी अक्ल खुली रखे तो ही वह इस तरह के भ्रम से बच सकता है।
रूहानी साधनाएं ज़रूरी हैं लेकिन पोथी का ज्ञान भी बहुत ज़रूरी है और एक सच्चा गुरू तो बुनियादी ज़रूरत है।
इस विवेचनात्मक आलेख द्वारा कई ऐसे परदे थे जो हटे।
ReplyDeleteजिस तरह बिना गुरु के ज्ञान नहीं मिलता उसी तरह सद्गुरु की खोज व उसकी प्राप्ति भी कठिन है। कई बार वह सामने होता है और हमारे अक़्ल पर परदा पड़ा रहता है।
दूसरी बात भी आपकी सही प्रतीत होती है कि पोथी का ज्ञान भी आवश्यक है। लेकिन आपने इस आलेख में ऐसे नीम हकीम खतरा-ए-जान की भी चर्चा की ही है कि ऐसे लोग -- एक मरी हुई मक्खी तक को ज़िंदा नहीं कर सकते। इन धंधेबाजों और पाखंडियों से भी बचके रहना नियाहत ही ज़रूरी है।
कई बार ऐसा भी हुआ की कहने वाले ने कुछ और सोच कर कोई बात कही लेकिन समझने वालों ने कुछ और समझ लिया.मसलन किसी की मदह का एक तरीका ये भी होता है की मदह करने वाला उसकी तरफ से 'मैं' बोलते हुए उसकी तारीफें करे. मसलन मैं कहूं की 'मैं मोहम्मद(स.) हूँ. मैं आखिरी नबी हूँ. मैं रसूल हूँ.....' तो इसका मतलब मैं नबी की तारीफ़ उन्ही की ज़बान में कर रहा हूँ. अरबी लिटरेचर में इस तरह की तारीफें आम हैं. अब कोई भी अनजान आदमी ये समझने की भूल कर सकता है की मैं मोहम्मद(स.) होने का दावा कर रहा हूँ, जबकि हकीकत में मैं नबी की तारीफें नबी की ज़बान में बयान कर रहा हूँ.
ReplyDeleteमैं सूफी मसलक से नहीं हूँ. लेकिन मेरा ख्याल है की जब बुज़ुर्ग सूफी संतों ने 'मैं खुदा हूँ' की बात की तो दरअसल उन्होंने खुदा की तारीफें खुदा की ज़बान में बयान कीं. खुद खुदा होने का दावा उन्होंने हरगिज़ नहीं किया.
अनवर भाई , आपकी तमाम पोस्ट्स पढता हूँ. हालांकि समय के अभाव में और कहीं कहीं यूँ , कमेन्ट नहीं दे पाता हूँ . कुछ पोस्ट्स आपकी , निश्चित रूप से बेहतर होती है , जैसे कि ये पोस्ट. आप इसे हृदयम पर जरुर लगाये ये मेरा फेसबुक ग्रुप है , जहाँ सारे धर्मो का सम्मान होता है . और अच्छी बाते कही और सुनी जाती है . लिंक है .
ReplyDeletehttp://www.facebook.com/groups/vijaysappatti/
dhanywad
सही शिक्षा |
ReplyDeleteबढ़िया ढंग से खरी खरी सही बात |
बधाई अनवर भाई |
आई हुई टिप्पणियों ने शोभा बधाई ||
बेहद सुंदर आलेख भाई जी.
ReplyDeleteनैसर्गिक प्रेम:गुजरे जमाने की बात