Wednesday, September 5, 2012

सूफ़ियों का कलाम आज भी दिल को सुकून देता है Hazrat Nizamuddin Auliya

जीवन को जानने का स्तर जीवन जीने के स्तर को बदल देता है। जीवन को जानना सबसे महत्वपूर्ण है। जैसे जैसे हम जीवन और मृत्यु के विधान पर ग़ौर करते हैं, वैसे वैसे हम यह जान लेते हैं कि हमें इस दुनिया से बहुत जल्द विदा होना है।
मौत की सरहद के पार हमारे साथ क्या पेश आना है ?
यह जिज्ञासा मनुष्य को साधना तक ले आए तो वह बदलकर एक नया इंसान बन जाता है जो कहता है कि हम एक मालिक के बंदे हैं और अपने कर्मों के लिए उसके सामने जवाबदेह हैं। दूसरा इंसान भी हमारी तरह एक इंसान ही है। उसके साथ हमें हमदर्दी और भलाई से पेश आना चाहिए। यह उसका हक़ है। हमारे माल में ही नहीं, हमारे वक्त में और हमारी दुआओं में भी दूसरे इंसानों का हिस्सा है। बैर दुश्मन से भी नहीं करना चाहिए। सबके लिए मालिक से भलाई की दुआ करो।
ये सभी बातें हमें उपदेश लगती हैं और हम टाल जाते हैं। हम इन बातों को सही कहते हैं और चलते हैं किसी और तरीक़े पर। कभी हमारा मक़सद राजनीति होती है और कभी दौलत। राजनीति और दौलत के किसी भी हद तक नीचे उतर जाता है।
सूफ़ी भी आम आदमी ही होता है और हरेक आम आदमी जब चाहे तब सूफ़ी बन सकता है। जो हमारे लिए आज उपदेश और जनरल नॉलिज का सामान है वह सूफ़ियों का आचरण होता है। हमारा आचरण भी वही हो जाए तो बस हम हो गए सूफ़ी।
बस उनकी और हमारी आध्यात्मिक अनुभूतियों में अंतर रह जाता है। जिसका कारण होता है पवित्रता के स्तर और साधना में मेहनत में अंतर। जहां तक वे बड़ी मेहनत से पहुंचे वहां तक हम आसानी से पहुंच सकते हैं क्योंकि उनका अनुभव हमें मार्ग दिखाता है। यह मार्ग हमें दुनिया में ही दिव्य और पवित्र जीवन देता है, हमारे अंतस को आनंद से भर देता है। हमें विश्वास और संताष का धन देता है। हमें समाज में मान, प्रेम और सहयोग दिलाता है। छीनकर आदमी जो नहीं पा सकता, दूसरों को देकर उससे ज़्यादा पा लेता है। नीचे गिरकर आदमी जो नहीं पा सकता, ऊंचा उठकर उससे कहीं ज़्यादा पा लेता है।
हम दूसरों से छीन रहे हैं या उन्हें दे रहे हैं। हमें यह देखते रहना चाहिए।
‘यदुल उल्या ख़ैरूम्मिनस्सुफ़्ला‘
अर्थात ऊपर वाला हाथ बेहतर है नीचे वाले हाथ से।
देते रहो तो सदा ऊपर बने रहोगे।
दूसरों को अपना समय, अपना ज्ञान और अपनी दुआएं देते रहो।
बदले में दूसरे हमें क्या दे रहे हैं, यह देखना हमारा काम नहीं है। हमारा मार्ग निश्चित है, हमें इसी पर चलना है। ईश्वर का मार्ग यही है। वह सबको देता है। ईश्वर और इंसाने से प्रेम हो तभी इस पथ पर चलना मुमकिन है।
इसीलिए सूफ़ी इश्क़ और मुहब्बत पर ज़ोर देते हैं।
जिसे हर दम अपनी मौत याद हो तो वह किसी से नफ़रत करने के लायक़ ही नहीं बचता। आज इंसान मौत को भूल कर जी रहा है। मौत को भूलकर इंसान जिएगा तो उसके जीवन के स्तर में गिरावट आ जाएगी। वह कुछ भी कर सकता है। यही वजह है कि आज इंसान सब कुछ कर रहा है। किसी का कुछ भरोसा नहीं है कि कब कौन क्या कर दे ?
ये लोग ईश्वर-अल्लाह को याद करते हैं, तो उससे भी पवित्रता और प्रेम, ज्ञान और उदारता नहीं मांग पाते। जो चीज़ें कल्याण का आधार हैं, वे लोगों की नज़र में आज फ़ालतू की चीज़ें ठहर चुकी हैं, केवल इसलिए कि हम ग़ौर नहीं करते।
हम जीवन में ग़ौर नहीं करते और उसे जी रहे हैं। हम एक अपराध कर रहे हैं, दूसरों के साथ बाद में और अपने साथ पहले। हम मानवता के अपराधी हैं और यही चीज़ हमें ईश्वर का अपराधी बनाती है। अपराध दंड दिलाता है। उसका दंड हमें हर तरफ़ से घेरे हुए है। बाहर से सुख ही नहीं बल्कि अंदर से भी चैन ग़ायब है।
सूफ़ी हमें सुख-चैन का रास्ता दिखाते हैं और यह तुरंत मिलता है। किसी सूफ़ी के पास बैठकर देखिए। इसीलिए सूफ़ियों में सोहबत पर बहुत ज़ोर है। वे अपनी सोहबत में बैठने वालों को सुख-चैन की दौलत देते रहते हैं। जिसकी सोहबत में हम रहते हैं, उसी के जैसे हो जाते हैं।
कलाम भी सोहबत का बदल है। सूफ़ियों का कलाम आज भी दिल को सुकून देता है।
हज़रत निज़ामुददीन औलिया एक ऐसे ही सूफ़ी हैं। उनका कलाम आज भी हमें बहुत कुछ देता है। उनका ज़िक्र हम सबके लिए बाइसे ख़ैर है।

हज़रत निज़ामुददीन औलिया रह. के बारे में जानकारी देती हुई जनाब मनोज कुमार जी की एक पोस्ट

ख़्वाजा हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया

दरगाह ख़्वाजा हज़रत निज़ामुद्दीन
बाबा फ़रीद के अनेक शिष्यों में से हज़रत जमाल हंसवी, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, हज़रत अली अहमद साबिर, शेख़ बदरुद्दीन इशाक और शेख़ आरिफ़ बहुत प्रसिद्ध सूफ़ी संत हुए। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (1238-1325 ई.) तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के महान और चिश्ती सिलसिले के चौथे सूफ़ी संत थे। उनके पूर्वज बुख़ारा से आकर उत्तर प्रदेश के बदायूं बदायूं ज़िले में बस गए थे। बदायूं में ही उनका जन्म हुआ था। उनका बचपन काफ़ी ग़रीबी में बीता। पांच वर्ष की अवस्था में उनके सिर से पिता का साया उठ गया। पिता अहमद बदायनी के स्वर्गवास के बाद उनकी माता बीबी जुलेख़ा ने उनका लालन-पालन किया। जब वे बीस वर्ष के थे तो अजोधन में, जिसे आजकल पाकपट्टन शरीफ़ (पाकिस्तान) कहा जाता है, उनकी भेंट बाबा फ़रीद से हुई। बाबा फ़रीद ने उन्हें काफ़ी प्रोत्साहित किया और उन्हें अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ने की दीक्षा दी। ख़्वाजा औलिया 1258 ई. में दिल्ली आए और ग़्यासपुर में रहने लगे। वहां उन्होंने अपनी ख़ानक़ाह बनाई। इसी बस्ती को आजकल निज़ामुद्दीन कहा जाता है। वहीं से लगभग साठ साल तक उन्होंने अपनी आध्यात्मिक गतिविधियां ज़ारी रखी। उनकी ख़नक़ाह में सभी वर्ग के लोगों की भीड़ लगी रहती थी। 
गोरी सोये सेज पर, अरु मुख पर डारे केश
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहूं ओर।
उनकी अपनी बनाई हुई मस्जिद के आंगन में उनका भव्य मज़ार है। दक्षिण दिल्ली में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का मक़बरा सूफ़ियों के लिए ही नहीं अन्य मतावलंबियों के लिए भी एक पवित्र दरग़ाह है। इस्लामी कैलेण्डर के अनुसार प्रति वर्ष चौथे महीने की सतरहवीं तारीख़ को उनकी याद में उनकी दरगाह पर एक मेला लगता है जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों भाग लेते हैं।

(पोस्ट देखना अभी बाक़ी है ...)
http://www.testmanojiofs.com/2012/09/blog-post_5.html 

Thursday, July 26, 2012

दस चीज़ें दस चीज़ों को खा जाती हैं (नेक नसीहत)


हज़रत सय्यदना अली हिजवेरी दाता गंज बख्श रहमतुल्लाह अलैह
ने फ़रमाया है कि दस चीज़ें दस चीज़ों को खा जाती हैं-
1. तौबा गुनाहों को खा जाती है।
2. ग़ीबत (पीठ पीछे बुराई) नेक आमाल को खा जाती है।
3. ग़म उम्र को खा जाता है।
4. सदक़ा (दान) बलाओं को खा जाता है।
5. पशेमानी सख़ावत को खा जाती है।
6. नेकी बदी को खा जाती है।
7. झूठ रिज़क़ को खा जाता है।
8. ग़ुस्सा अक्ल को खा जाता है।
9. तकब्बुर (घमंड) इल्म को खा जाता है।
10. अद्ल (न्याय) ज़ुल्म को खा जाता है।

माहे रमज़ान की फ़ज़ीलत Ramzan



रमज़ान की फ़ज़ीलत व बरतरी के बारे में हज़रत शैख़ अब्दुल क़ादिर जीलानी रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि ‘‘रमज़ान गुनाहों से पाक होने का महीना है, अहले वफ़ा का महीना है और उन का महीना जो अल्लाह का ज़िक्र करने वाले हैं। अगर यह महीना तेरे दिल की दुरूस्तगी न करेगा, गुनाहों से न बचाएगा, तो फिर कौन सी चीज़ उन चीज़ों से तुझे बचाएगी। इस महीने में तो मोमिनों के दिल मारिफ़त व ईमान के नूर से रौशन हो जाते हैं।
हज़रत मुजददिद अलिफ़ सानी रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि अगर इस महीने में किसी आदमी को नेक आमाल की तौफ़ीक़ मिल जाए तो पूरे साल यह तौफ़ीक़ उस के शामिल ए हाल रहेगी और अगर यह महीना बेदिली, बेफ़िक्री, तरद्दुद व इन्तशार के साथ गुज़रेगा तो पूरा साल इसी हाल में गुज़रने का अंदेशा है क्योंकि इस महीने का एक एक लम्हा क़ीमती है।
अल्लामा इब्ने क़य्यिम रहमतुल्लाह अलैह ने रोज़े के बारे में फ़रमाया है कि ‘‘यह अहले तक़वा की लगाम, मुजाहिदीन की ढाल और अबरार मुक़र्रबीन की रियाज़त है।
इमाम ग़ज़ाली रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि ‘‘रोज़े का मक़सद यह है कि आदमी अख़लाक़े इलाहिय्या में से एक अख़लाक़ को तो अपने अंदर पैदा कर ले जिसे समदियत कहते हैं। वो यह है कि इम्कानी हद तक फ़रिश्तों की तक़लीद करते हुए ख्वाहिशात से ख़ाली हो जाए। जब यह अपनी ख्वाहिशात पर ग़ालिब आ जाता है तो आला इल्लिय्यीन और फ़रिश्तों के आफ़ाक़ तक पहुंच जाता है।
हज़रत शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी फ़रमाते हैं कि रोज़ा भूख प्यास, मैथुन को छोड़ना, तर्के मुबाशिरत, ज़ुबान, दिल और जिस्म के दूसरे अंगों को क़ाबू करने का महीना है।
चुनांचे रमज़ान रहमतों के नुज़ूल, बरकात के ज़ुहूर, सआदतों के हुसूल और अल्लाह के फ़ज़्ल की तलाश व जुस्तजू का महीना है। इस महीने में रहमतें इस तरह नाज़िल होती हैं कि हम उन का अहाता भी नहीं कर सकते। 
लेखक - हमीदुल्लाह क़ासमी कबीर नगरी, राष्ट्रीय सहारा उर्दू दिनांक 26 जुलाई 2012 पृष्ठ 4, 
लेख ‘ईनाम व इकराम का महीना है‘ का एक अंश

Wednesday, May 23, 2012

सूफ़ी कौन है और उसका क्या काम है ?

पर हमारी टिप्पणी
सूफ़ी कौन है और उसका क्या काम है ?
सूफ़ी वह जिज्ञासु है जो जानना चाहता है कि उसकी हक़ीक़त क्या है और उसे किसने पैदा किया है ?
इन सवालों के लिए वह अपने तन-मन को निर्मल करता है। एकांत में मौन रहकर इन सवालों के जवाब की तलाश करता है।
जब ये सवाल उसके पूरे वुजूद पर छा जाते हैं तो उस पर उसकी रूहानी हक़ीक़त ज़ाहिर हो जाती है। यहीं पर उसे रूहानी ताक़त मिलती है और उसके बाद वह ख़ुदा के नूर की तजल्ली देखता है। ख़ुदा की तजल्लियां बेशुमार हैं और उनकी शक्लें भी बेशुमार हैं। तजल्ली ख़ुदा नहीं होती। ख़ुदा की तजल्ली साधक को तसल्ली देती है।
मुस्लिम सूफ़ी इन तजल्लियों से आगे बढ़ता है उस तजल्ली की तलाश में जिसे ‘तजल्ली ज़ाती बरक़ी‘ कहते हैं।
हर चीज़ नीयत और इरादे, तड़प और लगन के साथ वाबस्ता है।
शरीअत की पाबंदी में सूफ़ी और आम लोग बराबर हैं लेकिन जो चीज़ उन्हें ख़ास बनाती है, वह हैं उनके रूहानी तजर्बे।
ये तजर्बे आज भी सबके लिए उपलब्ध हैं।
ये तजर्बे उतने कठिन नहीं हैं जितने कि पढ़ने में लगते हैं।
एक एक क़दम आगे बढ़ा जाए तो सफ़र एक दिन तय हो ही जाता है। जबकि पूरे सफ़र का रूट एक दम देख लिया जाए तो हाथ पांव फूल जाते हैं।

आपकी पोस्ट अच्छी है।
शुक्रिया !

Thursday, May 17, 2012

रूहानी इल्म के लिए ज़ाहिरी इल्म भी ज़रूरी है Ruhani Haqiqat

अल्लाह ने आदम अलैहिस्सलाम की तख़लीक़ की और उन्हें सारी चीज़ों के नामों का इल्म दिया। अल्लाह ने सारे फ़रिश्तों को हुक्म दिया कि आदम के सामने झुक जाओ।
फ़रिश्तों ने जानना चाहा कि आदम के अंदर ऐसी क्या ख़ास बात है ?
तब अल्लाह ने उनसे चीज़ों के नाम पूछे। सब चीज़ों के नाम कोई भी फ़रिश्ता न बता सका। तब अल्लाह ने आदम को हुक्म दिया कि आप इन्हें चीज़ों के नाम बताईये।
आदम ने फ़रिश्तों को चीज़ों के नाम बता दिए। यही आदम की ख़ासियत थी, जिसे देखकर सारे फरिश्तों ने उन्हें अपने से श्रेष्ठ माना और वे उनके सामने झुक गए।
ज्ञान सदा ही शक्ति का कारण होता है। जिसे जितना ज्ञान होता है, उसकी शक्ति भी उतनी ही होती है।
ज्ञान के बल पर ही आदमी चीज़ों को इस्तेमाल करता है और ज्ञान के बल पर ही सही-ग़लत का फ़ैसला करता है।
ये तो बाहर की दुनिया से मुताल्लिक़ बातें हैं।
एक दुनिया इंसान के अपने अंदर भी होती है।
बाहर की दुनिया अंदर की दुनिया से जुड़ी हुई है। दोनों एक दूसरे पर असर डालती रहती हैं।
आदम को जो ज्ञान अल्लाह की तरफ़ से मिला था। उसे उन्होंने अपनी औलाद को सिखाया और उनकी औलाद होने की वजह वह ज्ञान हरेक आदमी के अंदर ख़ुद ब ख़ुद उसी तरह मुन्तक़िल हुआ जैसे कि उनका रूप हरेक आदमी को ख़ुद ब ख़ुद मिला।
बाहर की दुनिया का ज्ञान रखने वालों को वैज्ञानिक कहा गया और अंदर की दुनिया का ज्ञान रखने वालों को सूफ़ी संत।
कोई भी आदमी वैज्ञानिक बन सकता है और कोई भी आदमी सूफ़ी संत बन सकता है। जिसकी जैसी शक्ति और साधना होगी, वह उसी स्तर का वैज्ञानिक या सूफ़ी संत बन सकता है।

एक जीव वैज्ञानिक जब अपनी हक़ीक़त देखता है तो उसे वहां एक डीएनए की संरचना नज़र आती है और हरेक आदमी की संरचना वही एक है।
भौतिक संरचना की तरह आदमी की एक रूहानी हक़ीक़त भी होती है। भौतिक संरचना आंख खोलकर देखी जाती है तो रूहानी हक़ीक़त के लिए आंख बंद करने की ज़रूरत पेश आती है।
जब आदमी कुछ समय मौन रहकर एकांत में ध्यान करता है तो वह अपनी रूहानी हक़ीक़त को देख लेता है। तब वह देखता है कि हरेक आदमी की रूहानी हक़ीक़त एक ही है। एक ही रूह का नूर हरेक नर नारी में व्याप्त है।
न तो भौतिक डीएनए कुछ बोलकर बताता है और न यह रूहानी प्रकाश कुछ बोलकर बताता है। इन्हें साधक को अपनी अक्ल से समझना पड़ता है।
कोई कोई साधक इस रूह को ख़ुदा समझने की ग़लती कर जाता है।
सूफ़ी संतों में इस तरह की ग़लतियां करने वाले बहुत से साधक मिलेंगे।
ज्ञान का दायरा भौतिक हो या रूहानी, ग़लती की संभावना बराबर बनी रहती है।
ग़लतियों से पाक केवल अल्लाह है।
अपने पैग़बरों के ज़रिये उसने बार बार इंसानों को हिदायत दी है। इसीलिए मुस्लिम सूफ़ियों ने कहा है कि कोई भी मुकाशिफ़ा (आत्म-दर्शन संबंधी अनुभूति) तब तक मान्य नहीं है जब तक कि उसे दो गवाहों पर पेश न कर दिया जाए यानि कि उसके हक़ क़ुरआन व सुन्नत से दलील न मिल जाए।
पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि ‘दो चीज़ें ऐसी हैं कि जब तक तुम इन्हें थामे रखोगे हरगिज़ गुमराह नहीं हो सकते, एक क़ुरआन और दूसरे मेरी सुन्नत (यानि मेरा तरीक़ा)। (भावार्थ हदीस)
इंसान को ज़िंदगी गुज़ारने के लिए चीज़ों के ज्ञान की भी ज़रूरत है और आत्मज्ञान की भी।
आदमी बाहर की चीज़ों में चिंतन कर ले या फिर अपने अंदर चिंतन कर ले। बहुत कुछ पाने के बावजूद और बहुत कुछ देखने के बावजूद वह उसे अपने चिंतन से यह कभी पता नहीं चल सकता कि ख़ुदा और बंदों के हक़ उस पर क्या हैं और वह उन्हें किस तरह अदा करे ?

यह बात किसी भी मुराक़बे-ध्यान और समाधि से नहीं मिलती। यह बात सिर्फ़ पैग़ंबर स. पर ईमान लाने से और उनके तरीक़े पर चलने से हासिल होती है। यही वजह है कि आला रूहानी इल्म रखने वाले तमाम मुस्लिम सूफ़ी इस्लामी शरीअत के वैसे ही पाबंद रहे जैसे कि आम आलिम बल्कि वे आम आलिमों से बढ़कर पाबंद थे।
तमाम सूफ़ी सिलसिलों के इमाम उलूम ए मुकाशिफ़ा हासिल करने से पहले अक़्ली उलूम हासिल कर चुके थे और अपने मुरीदों को भी वे यही ताकीद करते थे।
ज़ाहिरी अक़्ली उलूम हासिल न हो तो आदमी कभी नहीं समझ सकता कि साधना के दौरान उसने क्या देखा और किस प्रतीक का अर्थ क्या है ?
जिस तरह आम आदमी सपने जो कुछ देखता है तो बहुत बार सपने का प्रतीक अर्थ मुराद होता है और उसकी ताबीर लेनी पड़ती है। मुराक़बे और ध्यान में भी ऐसा अक्सर होता है। ज़ाहिरी इल्म न रखने वाले यहां अक्सर भटक जाते हैं।
जब उन्हें रूह का नूर नज़र आता है और वे अपनी अनुपम नूरानी हक़ीक़त देखते हैं तो वे समझते हैं कि यह ख़ुदा है और अब वे ख़ुद ख़ुदा हो गए हैं।
जब इस बात को वे कविता और दोहों में गाते हैं तो उनसे भी कम जानने वाले भी उन्हें ख़ुदा मान लेते हैं।
वे देखते हैं कि इस आदमी ने ज़िंदगी में कभी झूठ नहीं बोला तो इसकी यह बात भी सही होगी कि अब यह ख़ुदा हो गया होगा।
जबकि हक़ीक़त यह है कि सच बोलना अलग बात है और हरेक बात की हक़ीक़त को समझ लेना अलग बात है।
सच बोलने वाले भी किसी बात को समझने से चूक सकते हैं।
रूहानी मामले में गुरू की एक चूक उसके लाखों-करोड़ों लोगों को मुग़ालते में डाल सकती है।

आज भारत में हज़ारों ऐसे गुरू हैं जो अपने ईश्वर और ईश्वर का अंश होने का दावा करते हैं और भारत क़र्ज़ में दबा हुआ भी है और क्राइम का ग्राफ़ भी लगातार बढ़ता जा रहा है। अगर उनसे कहा जाए कि आप इतने सारे लोग साक्षात ईश्वर हैं तो भारत का क़र्ज़ ही उतार दीजिए या जुर्म का ख़ात्मा ही कर दीजिए।
तब वे ऐसा न कर पाएंगे।
वे सब मिलकर किसी एक मरी हुई मक्खी तक को ज़िंदा नहीं कर सकते।
इसके बावजूद न तो वे अपने दावे से बाज़ आते हैं और न ही उनके मानने वाले कभी यह सोचते हैं कि दवा खाने वाला यह आदमी ईश्वर-अल्लाह कैसे हो सकता है ?
रूहानियत के नाम धंधेबाज़ी और पाखंड फैला हुआ है।
यही पाखंडी आज साधकों को भ्रमित कर रहे हैं।
मालिक को राज़ी करने की लगन सच्ची हो और साधक अपनी अक्ल खुली रखे तो ही वह इस तरह के भ्रम से बच सकता है।
रूहानी साधनाएं ज़रूरी हैं लेकिन पोथी का ज्ञान भी बहुत ज़रूरी है और एक सच्चा गुरू तो बुनियादी ज़रूरत है।

Saturday, April 28, 2012

इंसानियत का मक़ाम इंसान तभी पा सकता है जबकि वह अपने रब का होकर जिए Sufi Silsila


1.
मेरा रब अल्लाह है।
मैं अल्लाह का बंदा हूं।
अल्लाह ने मुझे पैदा किया है।
मेरी ज़िंदगी और मेरी मौत उसी के हाथ में है।
आसमानों और ज़मीन की हर चीज़ का मालिक वही अकेला है।
सच्चा बादशाह बस वही एक है।
हर चीज़ उसका हुक्म मानती है।
मैं भी उसी का हुक्म मानता हूं।
उससे जोड़ने वाली चीज़ बस हुक्म है।

अल्लाह आसमानों और ज़मीन का नूर है।
जहां मैं होता हूं वहां अल्लाह भी होता है।
जिस तरफ़ चेहरा घुमाऊं, उधर ही अल्लाह है।
अल्लाह मेरे साथ है।
अल्लाह मेरे क़रीब है।
अल्लाह मेरी शहरग से भी ज़्यादा मेरे क़रीब है।

अल्लाह सुनता है जो कुछ मैं कहता हूं।
अल्लाह जानता है जो कुछ मैं सोचता हूं।
अल्लाह देखता है जो कुछ मैं करता हूं।

ऐ अल्लाह ! तू पाक है तेरे सिवाय कोई माबूद नहीं है।
बेशक मैंने अपनी जान पर ज़ुल्म किया है।
मैं तुझे भूलकर जीता रहा।
मुझे माफ़ कर दे।
मुझे अपना बना ले।
मेरा मक़सद बस तू है।
मैं तेरे हुक्म पर राज़ी हूं।
मैं तेरे नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के तरीक़े पर राज़ी हूं।
तू भी मुझसे राज़ी हो जा।
आमीन !

2.
ला इलाहा इल्-लल्लाह
अर्थात अल्लाह के सिवाय कोई माबूद नहीं है।

तफ़सील-यह एक ख़ास ज़िक्र है। इस ज़िक्र को समझकर अपनी सोच का हिस्सा बना लेने के बाद इंसान हरेक ख़ौफ़ और हरेक ग़म से आज़ाद हो जाता है। टेंशन, डिप्रेशन और रोज़गार की परेशानी दूर हो जाती है। समाज में इज़्ज़त का मक़ाम हासिल होता है और ऐसे बंदे को अल्लाह अपने प्यारे बदों में शामिल कर लेता है। हरेक तरह की ख़ैर व बरकत इस ज़िक्र के साथ वाबस्ता है।
इस ज़िक्र के ज़रिये अल्लाह के साथ होने का अहसास पुख्ता हो जाता है और जिसके साथ अल्लाह होता है। उसे सब कुछ हासिल हो गया।
यह साधना अहसास की साधना है।
ख़ुदा के हो जाओ, ख़ुदा तुम्हारा हो जाएगा।
तुम ख़ुदा की मानो, वह तुम्हारी मानेगा।
जीने का मक़सद भी यही है और जीने का तरीक़ा भी यही है।
जो इस तरीके़ से हटकर जीना वासना कहलाता है।
कोई साधना में जीता है और कोई वासना मे।
हरेक आदमी देख ले कि वह कैसे और किस लिए जी रहा है ?

जैसे रब के लिए ‘मक़ामे रूबूबियत‘ है, ऐसे ही इंसान के लिए ‘मक़ामे अब्दियत‘ है। यही ‘बंदगी का मक़ाम‘ कहलाता है। इंसान के लिए इससे ऊंचा कोई मक़ाम नहीं है। इसी के बाद वह ख़ुदा की नज़र में इंसान कहलाने का हक़दार बनता है। इंसान की हक़ीक़त इंसानियत है। इंसानियत का यह मक़ाम इंसान तभी पा सकता है जबकि वह अपने रब का होकर जिए।
इस ज़िक्र के ज़रिये इंसान ‘मक़ामे अब्दियत‘ को पा लेता है जो कि उसकी हक़ीक़त है। यही इंसान की मंज़िल है। इसी के लिए उसे रब ने पैदा किया है।
यह ज़िक्र करने में आसान है और नफ़े में बेमिसाल है। सुख-शांति, इल्म, दौलत, ख़ुशहाली, इज़्ज़त, कामयाबी और नेक औलाद सब कुछ इस ज़िक्र  के ज़ाकिर को रब की तरफ़ से अता किया जाता है।

ज़िक्र का तरीक़ा- इस ज़ि़क्र के दो हिस्से हैं। पहले हिस्से में अल्लाह की ज़ात व सिफ़ात का ज़िक्र व दुआ है और दूसरे हिस्से में कलिमा है।
चंद बार दोनों हिस्से साथ साथ पढ़े जाएं, शुरू में देखकर और याद हो जाने के बाद बिना देखे। जो कुछ कहा जाए उसे दिल में बहुत शिद्दत से महसूस करके कहा जाए क्योंकि यह अहसास की साधना है। अहसास जितना ज़्यादा शदीद होगा, साधना उतनी ही कामिल होगी और उसका फल उतना ही ज़्यादा बड़ा होगा।

सुबह, दोपहर और शाम यह ज़िक्र किया जाए। तहज्जुद के वक्त (ब्रहम मूहूर्त में) यह ज़िक्र बहुत जल्दी तरक्क़ी देता है।
इसके बाद हर वक्त इस ज़िक्र का दूसरा हिस्सा यानि कि कलिमा
‘ला इलाहा इल्-लल्लाह‘
ज़बान से या दिल से पढ़ते रहें और इसके माअना (अर्थ) का ख़याल रखें।

चिश्ती, क़ादिरी, सुहरावर्दी, नक्शबंदी, शतारी, मदारी और क़लंदरी सब सूफ़ी सिलसिलों की बुनियाद इसी ज़िक्र पर है। तमाम पैग़ंबरों की दावत यही रही है। ऋषियों की परम गुह्य साधना यही है।
क़ुरआन, बाइबिल, और वेद-उपनिषद में, अलग अलग भाषाओं के बावजूद सभी धर्मग्रंथों में यह ज़िक्र मिलता है।

Thursday, April 26, 2012

इंसान की माददी और रूहानी ताक़त आज जितनी भी है इसी ग़ौरो फ़िक्र के ज़रिये है

पर एक टिप्पणी
यक़ीन में बड़ी ताक़त है।
यक़ीन हासिल होता है इल्म से और इल्म हासिल होता है ग़ौरो फ़िक्र से।
ग़ौरो फ़िक्र इंसान की ख़ासियत है।
इंसान की माददी और रूहानी ताक़त आज जितनी भी है इसी ग़ौरो फ़िक्र के ज़रिये है।
जब ग़ौरो फ़िक्र ख़त्म हो जाता है तो फिर दीनदारी और रूहानियत का भी जनाज़ा निकल जाता है।
तब सिर्फ़ बेजान रस्में बचती हैं जो सड़ती रहती हैं और सिर्फ़ बदबू और बीमारियां फैलाती हैं।
इन रस्मों में ज़िंदगी भी ग़ौरो फ़िक्र से ही आएगी।

पाक दिल पार होगा और बाक़ी के लिए मुमकिन नहीं है।
दुनिया में एक ने देखा लेकिन आखि़रत में सब देखेंगे।

नसीहत आमोज़ वाक़ये के साथ आपका यह तहक़ीक़ी मक़ाला अच्छा लगा।
शुक्रिया।

Tuesday, April 17, 2012

लौकिक जीवन भी ढंग से वही जी पाता है जो अपने रब से प्यार करता है

पर एक टिप्पणी
लोगों की दिलचस्पी जीवन के ज़्यादा से ज़्यादा साधन जमा कर लेने में है।
इन्हीं साधनों को मांगने के लिए वे ईश्वर से प्रार्थनाएं करते हैं।
यह आम आस्तिकों का दर्जा है।
सूफ़ी वह है जो ख़ुदा को देने की कोशिश करता है।
ख़ुदा बंदे से उसका प्रेम चाहता है बिला शिरकते ग़ैरे।
जब बंदा ख़ुदा को प्यार का यह नज़राना देने की कोशिश करता है तो वह सूफ़ी बन जाता है और दूसरे गुण उसमें अपने आप विकसित हो जाते हैं।
पीर मुर्शिद यही सिखाते हैं।
किताबों में जो बातें भारी लगती हैं, वे उनकी तालीम की बरकत से आसानी से अमल में आ जाती हैं।
ख़ुदा की मुहब्बत का झरना जब बंदे के दिल में बहने लगता है और वह अपने रब की मर्ज़ी में अपनी मर्ज़ी फ़ना कर देता है तो वह दुख और भय से आज़ाद हो जाता है।
कोई दुख न तो उसे हार्ट अटैक कर पाएगा और न ही किसी डर से वह आत्महत्या करेगा।
लौकिक जीवन भी ढंग से वही जी पाता है जो अपने रब से प्यार करता है।
रब से प्यार न हो तो फिर इबादत महज़ एक ऐसा शरीर है जिसमें कि आत्मा ही नहीं है।
प्यार ज़िंदगी है।

Wednesday, March 28, 2012

सच्चे बादशाह से बातें कीजिए God hears.

रूह में रब का नाम नक्श है।
रूह सबकी एक ही है।
जो भी पैदा होता है, उसी एक रूह का नूर लेकर पैदा होता है।
रूह क्या है ?
रब की सिफ़ाते कामिला का अक्स (सुंदर गुणों का प्रतिबिंब) है।
सिफ़ाते कामिला को ज़ाहिर करने वाले बहुत से नाम हैं।
रब का हरेक नाम रूह को ताक़त देता है। रब का नाम रूहानी ताक़त का ख़ज़ाना है।
रब का नाम दिल का सुकून है।
खड़े बैठे या लेटे कैसे भी उसका नाम लो, दिल को सुकून मिलता है।
जहां तुम हो, वहीं तुम्हारी रूह है और तुम्हारा रब भी वहीं है।
रब की मौजूदगी को महसूस कीजिए।
अपने अहसास को थोड़ा थोड़ा करके गहरा करते जाइये।
अपने रब से बातें कीजिए, उसके साथ हंसिए बोलिए।
उसके साथ अपने सुख दुख शेयर कीजिए, जैसे कि आप अपने मां बाप और दोस्त से शेयर करते हैं।
आप जो भी कहते हैं, वह उसे सुनता है।
यक़ीन कीजिए, आपको उससे बातें करके अच्छा लगेगा।
वह आपकी बातों का आपको जवाब भी देगा।
वह आपकी बातों का जवाब बहुत तरह से देता है, आज भी दे रहा है लेकिन आपका ध्यान उसकी तरफ़ नहीं है इसलिए आप यह जान ही नहीं पाते कि उसने आपकी किस बात पर किस तरह रिएक्ट किया है ?
आप जो कुछ सुनते हैं, उसे रब से जोड़कर सुनिए, उनमें आपको जवाब मिलेगा।
जो कुछ आप देखते हैं, उसे रब से जोड़कर देखिए, वे चीज़ें आपको रब की तरफ़ से संकेत देंगी।
जिन धार्मिक ग्रंथों को आप पढ़ते हैं, उन पर ध्यान दीजिए, आपको वहां अपनी बात का जवाब मिलेगा।
जैसे जैसे आपकी प्रैक्टिस बढ़ती जाएगी, आप ख़ुदा के इशारों को बेहतर तरीक़े से समझने लगेंगे।
रब से बात करेंगे तो आपको वह हमेशा अपने साथ ही महसूस होगा।
इससे आपके टेंशन्स दूर होंगे, आपको सुकून मिलेगा।
आप जिस रब से बात कर रहे हैं, वह इस कायनात का बादशाह है और बादशाह से बात करना अपने आप में ही एक गौरव की बात है।
कायनात का बादशाह आपको हमेशा अवेलेबल है।
बादशाह अपना हो तो फिर चिंता किस बात की है ?
बस हम बादशाह के हो जाएं।