Saturday, April 28, 2012

इंसानियत का मक़ाम इंसान तभी पा सकता है जबकि वह अपने रब का होकर जिए Sufi Silsila


1.
मेरा रब अल्लाह है।
मैं अल्लाह का बंदा हूं।
अल्लाह ने मुझे पैदा किया है।
मेरी ज़िंदगी और मेरी मौत उसी के हाथ में है।
आसमानों और ज़मीन की हर चीज़ का मालिक वही अकेला है।
सच्चा बादशाह बस वही एक है।
हर चीज़ उसका हुक्म मानती है।
मैं भी उसी का हुक्म मानता हूं।
उससे जोड़ने वाली चीज़ बस हुक्म है।

अल्लाह आसमानों और ज़मीन का नूर है।
जहां मैं होता हूं वहां अल्लाह भी होता है।
जिस तरफ़ चेहरा घुमाऊं, उधर ही अल्लाह है।
अल्लाह मेरे साथ है।
अल्लाह मेरे क़रीब है।
अल्लाह मेरी शहरग से भी ज़्यादा मेरे क़रीब है।

अल्लाह सुनता है जो कुछ मैं कहता हूं।
अल्लाह जानता है जो कुछ मैं सोचता हूं।
अल्लाह देखता है जो कुछ मैं करता हूं।

ऐ अल्लाह ! तू पाक है तेरे सिवाय कोई माबूद नहीं है।
बेशक मैंने अपनी जान पर ज़ुल्म किया है।
मैं तुझे भूलकर जीता रहा।
मुझे माफ़ कर दे।
मुझे अपना बना ले।
मेरा मक़सद बस तू है।
मैं तेरे हुक्म पर राज़ी हूं।
मैं तेरे नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के तरीक़े पर राज़ी हूं।
तू भी मुझसे राज़ी हो जा।
आमीन !

2.
ला इलाहा इल्-लल्लाह
अर्थात अल्लाह के सिवाय कोई माबूद नहीं है।

तफ़सील-यह एक ख़ास ज़िक्र है। इस ज़िक्र को समझकर अपनी सोच का हिस्सा बना लेने के बाद इंसान हरेक ख़ौफ़ और हरेक ग़म से आज़ाद हो जाता है। टेंशन, डिप्रेशन और रोज़गार की परेशानी दूर हो जाती है। समाज में इज़्ज़त का मक़ाम हासिल होता है और ऐसे बंदे को अल्लाह अपने प्यारे बदों में शामिल कर लेता है। हरेक तरह की ख़ैर व बरकत इस ज़िक्र के साथ वाबस्ता है।
इस ज़िक्र के ज़रिये अल्लाह के साथ होने का अहसास पुख्ता हो जाता है और जिसके साथ अल्लाह होता है। उसे सब कुछ हासिल हो गया।
यह साधना अहसास की साधना है।
ख़ुदा के हो जाओ, ख़ुदा तुम्हारा हो जाएगा।
तुम ख़ुदा की मानो, वह तुम्हारी मानेगा।
जीने का मक़सद भी यही है और जीने का तरीक़ा भी यही है।
जो इस तरीके़ से हटकर जीना वासना कहलाता है।
कोई साधना में जीता है और कोई वासना मे।
हरेक आदमी देख ले कि वह कैसे और किस लिए जी रहा है ?

जैसे रब के लिए ‘मक़ामे रूबूबियत‘ है, ऐसे ही इंसान के लिए ‘मक़ामे अब्दियत‘ है। यही ‘बंदगी का मक़ाम‘ कहलाता है। इंसान के लिए इससे ऊंचा कोई मक़ाम नहीं है। इसी के बाद वह ख़ुदा की नज़र में इंसान कहलाने का हक़दार बनता है। इंसान की हक़ीक़त इंसानियत है। इंसानियत का यह मक़ाम इंसान तभी पा सकता है जबकि वह अपने रब का होकर जिए।
इस ज़िक्र के ज़रिये इंसान ‘मक़ामे अब्दियत‘ को पा लेता है जो कि उसकी हक़ीक़त है। यही इंसान की मंज़िल है। इसी के लिए उसे रब ने पैदा किया है।
यह ज़िक्र करने में आसान है और नफ़े में बेमिसाल है। सुख-शांति, इल्म, दौलत, ख़ुशहाली, इज़्ज़त, कामयाबी और नेक औलाद सब कुछ इस ज़िक्र  के ज़ाकिर को रब की तरफ़ से अता किया जाता है।

ज़िक्र का तरीक़ा- इस ज़ि़क्र के दो हिस्से हैं। पहले हिस्से में अल्लाह की ज़ात व सिफ़ात का ज़िक्र व दुआ है और दूसरे हिस्से में कलिमा है।
चंद बार दोनों हिस्से साथ साथ पढ़े जाएं, शुरू में देखकर और याद हो जाने के बाद बिना देखे। जो कुछ कहा जाए उसे दिल में बहुत शिद्दत से महसूस करके कहा जाए क्योंकि यह अहसास की साधना है। अहसास जितना ज़्यादा शदीद होगा, साधना उतनी ही कामिल होगी और उसका फल उतना ही ज़्यादा बड़ा होगा।

सुबह, दोपहर और शाम यह ज़िक्र किया जाए। तहज्जुद के वक्त (ब्रहम मूहूर्त में) यह ज़िक्र बहुत जल्दी तरक्क़ी देता है।
इसके बाद हर वक्त इस ज़िक्र का दूसरा हिस्सा यानि कि कलिमा
‘ला इलाहा इल्-लल्लाह‘
ज़बान से या दिल से पढ़ते रहें और इसके माअना (अर्थ) का ख़याल रखें।

चिश्ती, क़ादिरी, सुहरावर्दी, नक्शबंदी, शतारी, मदारी और क़लंदरी सब सूफ़ी सिलसिलों की बुनियाद इसी ज़िक्र पर है। तमाम पैग़ंबरों की दावत यही रही है। ऋषियों की परम गुह्य साधना यही है।
क़ुरआन, बाइबिल, और वेद-उपनिषद में, अलग अलग भाषाओं के बावजूद सभी धर्मग्रंथों में यह ज़िक्र मिलता है।

3 comments:

  1. आपके ज्ञान से अभिभूत हूं और आपसे काफ़ी कुछ सीखने को मिलता रहा है।

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  2. किसी भी ख़ास ज़िक्र है को अपनी सोच का हिस्सा बना लेने से इंसान हरेक ख़ौफ़ और हरेक ग़म से आज़ाद नहीं हो सकता। इसलिए,"समझदारी" शब्द का प्रयोग एकदम ठीक है। अन्यथा,हम अब तक खौफ और ग़म से आज़ाद हो नहीं गए होते;इतने वर्षों से रट ही तो रहे हैं यह सब तोते की तरह। जब तक चीज़ें स्वानुभूत न हों,बातें गहरे नहीं उतरतीं।

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  3. @ Kumar Radharaman ji ! सोच को हिन्दी में विचारधारा कहते हैं और किसी विचारधारा को अपनाना ही तब चाहिए जबकि उसे समझ लिया जाए. इसी का नाम समझदारी है.

    ग़ौरो फ़िक्र इंसान की ख़ासियत है।
    इंसान की माददी और रूहानी ताक़त आज जितनी भी है इसी ग़ौरो फ़िक्र के ज़रिये है।
    जब ग़ौरो फ़िक्र ख़त्म हो जाता है तो फिर दीनदारी और रूहानियत का भी जनाज़ा निकल जाता है।
    यक़ीन हासिल होता है इल्म से और इल्म हासिल होता है ग़ौरो फ़िक्र से।
    यक़ीन में बड़ी ताक़त है।

    यह बात हम पहले ही कह चुके हैं .
    देखिये-
    http://sufidarwesh.blogspot.in/2012/04/blog-post_25.html

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